आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालयश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र
हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ
हिमालय बहुत विस्तृत है। उसके अध्यात्म विशेषताओं से सम्पन्न भाग को देवात्मा कहते हैं। वह बहुत छोटा है। यमुनोत्तरी से आरम्भ होता है और कैलाश शिखर तक चला जाता है। इसकी ऊँचाई समुद्र तल से दस हजार फुट से लेकर बीस हजार फुट तक की समझी जा सकती है। शेष भाग वन, पर्वत, वनस्पति, नदी, नद आदि से भरा है। उसमें जहाँ कृषि संभव है, जल की सुविधा है, तापमान सह्य है, वहाँ उस क्षेत्र में रहने के अभ्यासी टिके रहते हैं और निर्वाह क्रम चलाते रहते हैं। उत्तरी ध्रुव में एस्किमो जाति के लोग रहते हैं। वे मांसाहार से पेट भरते हैं। बड़ी मछलियों की चमड़ी से रहने के लिए तम्बू बनाते हैं। मछली की चर्बी से प्रकाश जलाते हैं। शिकार पकड़ने, उसे काटने, भूनने के लिये जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, उन्हें भी एकत्रित करके काम चलाते रहते हैं। कुत्ते और हिरन उनके कामों में हाथ बँटाते हैं।
दक्षिण ध्रुव में मनुष्य या पशु तो नहीं रहते, पर वहाँ पेन्गुइन जाति के दो पैरों के सहारे चलने वाले पक्षी पाये जाते हैं। टिड्डे स्तर के चींटे भी होते हैं। इन ध्रुव प्रदेशों में मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों का निर्वाह असंभव जैसा लगता है, पर जो अभ्यस्त हैं वे चिर पुरातनकाल से रहते और वंशवृद्धि करते चले आ रहे हैं। इसका निष्कर्ष यही निकलता है कि प्राणी किसी भी परिस्थिति में रहने के लिए अपने को ढाल सकता है। प्रकृति उसके लिए आवश्यक सुविधा-साधन भी जुटा देती है। घोर शीत वाले हिमाच्छादित प्रदेशों में भी कुछ प्रकार के जीव पाये जाते हैं। श्वेत भालू, श्वेत विलाव, श्वेत पक्षी, श्वेत कछुए एक प्रकार से काई को ही अपना आहार बना लेते हैं। इन क्षेत्रों में पाई जाने वाली चट्टानी गुफाओं के नीचे वे बस जाते हैं और समीपवर्ती क्षेत्र से ही अपना आहार प्राप्त कर लेते हैं। ऊँचाई पर पाये जाने वाले हिरन और भेड़ें उस वर्ग के लिए भोजन की आवश्यकता पूरी करते रहते हैं, जिन्हें मांसाहार पचता है।
यह हिमाच्छादित प्रदेशों के निवासियों के निर्वाह की चर्चा हुई। अब देखना यह है कि महत्त्वाकांक्षी मनुष्य भौतिक दृष्टि से उस क्षेत्र में जाकर क्या खोज और क्या पा सकता है ? इस प्रयोजन के लिये बहुत ऊँचाई तक जाने का मोह छोड़ना होगा। वहाँ पहुँचना अत्यन्त मँहगा भी है और कष्ट साध्य भी। जिनने कैलाश, मानसरोवर की यात्रा की है, जिन्होंने गंगोत्री और बद्रीनाथ का मध्यवर्ती मार्ग पैदल चलकर पार किया है, वे जानते हैं कि इस प्रकार के प्रयास कितने खर्चीले होते हैं। जिनके सामने आध्यात्मिक लक्ष्य है, उनकी बात दूसरी है, पर जिनका दृष्टिकोण विशुद्ध भौतिक है, वे इस प्रकार के पचड़े में पड़कर अपनी सुख-सुविधा वाली जिन्दगी में क्यों जोखिम खड़ा करेंगे। अध्यात्मवादियों के अतिरिक्त दूसरा वर्ग शोधकर्ता वैज्ञानिकों का आता है। वे भी अपनी गुरुता सिद्ध करने, कीर्तिमान स्थापित करने और कुछ ऐसी उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए समर्पित रहते हैं, जो पीछे वालों के लिए उपयोगी बन सकें, सराही जाती रहें।
हिमालय इस दृष्टि से भी खोजने योग्य है। जब उत्तरी ध्रुव जैसे क्षेत्र शोधकर्ताओं के लिए आकर्षण का केन्द्र बन सकते हैं, उन्हें वहाँ की परिस्थिति जानने के लिए कठिन यात्राओं के लिए प्रोत्साहित करते हैं, तो कोई कारण नहीं कि हिमालय की भौतिक सम्पदा को खोज निकालने के लिए शोधकर्ताओं का उत्साह क्यों न जगे।
जहाँ प्रकृति का दोहन होता रहता है, वे क्षेत्र दुर्बल पड़ जाते हैं; किन्तु जहाँ की मौलिकता अक्षुण्ण रही है, वहाँ खोज के लिए बहुत कुछ पाया जा सकता है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड आदि नये खोजे क्षेत्रों में भूमि-उर्वरता, खनिज आदि का इतना बड़ा वैभव प्राप्त हुआ है कि वहाँ के निवासी कुछ ही समय में समृद्ध हो गए। हिमालय का क्षेत्र भी ऐसा है, जिसे अति प्राचीनकाल में ही खोजा गया था। उन दिनों न वहाँ पाई जाने वाली समृद्धि की कल्पना की गई, न हाथ डाला गया। फलतः वह क्षेत्र एक प्रकार से अछूता ही पड़ा है। समुद्र किनारे पर पड़े हुए सीप-घोंघों को जिस प्रकार बालक बीन लेते हैं, उसी प्रकार हिमालय से अनायास ही मिलने वाले लाभों को ही पर्याप्त मानकर सन्तोष किया जाता रहा है। यदि समुद्र की गहराई में उतरकर मोती बीनने वाले का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सके, तो वह प्रदेश कम विभूतियों से भरा-पूरा न मिलेगा।
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- अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
- देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
- अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
- अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
- पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
- तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
- सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
- सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
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